Thursday, April 23, 2020

अहिंसा से बडा कोई हथियार नहीं

राजगढ़ में राजा सूर्यसेन का शासन था। वह सत्य और अहिंसा का भी पुजारी था। वह एक दयालु और न्याय प्रिय राजा था। उसके राज्य में किसी को सताना और झूठ बोलकर किसी को ठगना एक अपराध था। प्रजा जन सुखी और सुख रहे, किसी को पीडा अथवा कष्ट न पहुंचे। हर संप्रदाय के लोगों में परस्पर मेल और भाईचारा रहे, समाज के सभी वर्ग एक दूसरे के धर्म का आदर करें और धार्मिक पर्वों में सम्मिलित हो। इसी उद्देश्य को लेकर राजा सूर्यसेन शासन चलाते थे।

        लेकिन बहुत लोग ऐसे भी होते हैं जो दूसरो के घर में अमन-चैन और खुशहाली देखकर जला करते है। उनके पड़ोसी राज्य प्रतापगढ़ का राजा बलराम सिंह ने अकारण ही राजगढ़ पर हमला बोल दिया। राजा सूर्यसेन इस अकारण युद्ध के लिए तैयार नहीं था। उसके पास बड़ी सेना भी नहीं थी। उन्होंने सोचा कि यदि युद्ध छिड़ गया तो बेकार ही राज्य के हजारों निरपराध व्यक्ति मारे जाएंगे, व्यर्थ में खून खराबा होगा। बहुत सोच-विचार के बाद आधी रात के समय जब सारा नगर गहरी नींद में सो रहा था। राजा सूर्य सेन ने अपना राज्य छोड़ दिया। उसने सन्यासी का भेष बनाया और प्रतापगढ़ में जाकर एक मंदिर में रहने लगा। राजा के साथ उसकी रानी भी थी।  साध्वी वेश में वह भी पति के साथ रहने लगी। कुछ महीने पश्चात रानी की कोख में एक सुंदर से बालक ने जन्म लिया। राजा ने उसका नाम वीरसेन रखा। जब वीरसेन शिक्षा प्राप्त करने की अवस्था को पहुंचा तो राजा ने उसे एक आश्रम में शिक्षा ग्रहण करने के लिए भेज दिया। एक दिन राजा बलराम सिंह को उसके दूतो ने खबर दी कि राजा सूर्यसेन राजगढ़ से पलायन करके वर्षों से अपनी रानी के साथ उन्ही के राज्य में साधु वेश में रह रहा है। सुरेशन और उसकी पत्नी को बंदी बना लिया गया और मृत्युदंड का आदेश दिया गया। https://www.youtube.com/channel/UCxeVJa_N67SBIipbxGfiVxw

        अपने माता-पिता के बंदी होने और मृत्युदंड का समाचार सुनकर पुत्र वीरसेन उनके अंतिम दर्शनों के लिए कारागार पहुंचा। पुत्र को प्यार करके माता पिता ने उसे यशस्वी, तेजस्वी और दीर्घजीवी होने का आशीर्वाद दिया। पिता ने पुत्र को शिक्षा दी कहा, पुत्र जीवन में मेरी इन बातों को हमेशा ध्यान रखना।

    पहली:-       न अधिक देखो, न कम देखो।
  
    दूसरी:-       विश्वासघात करना महापाप है।

    तीसरी:-      शत्रुता और हिंसा को प्रेम रूपी शस्त्र से                         ही काटा जा सकता है।
    चौथी:-        अहिंसा हथियार ही सबसे अधिक                                धारदार और शाश्वत है।

    राजा सूर्यसेन और उसकी पत्नी को फांसी दे दी गई। वीरसेन अब अकेला और बेसहारा रह गया। उसने राजा बलराम सिंह के महावत के यहां नौकरी कर ली। राजा बलराम सिंह तथा अन्य किसी कर्मचारी को यह पता नहीं था कि वीरसेन राजा सूर्य सेन का पुत्र है। वीरसेन को वीणा बजाने का शौक था। वह प्रतिदिन सवेरे वीणा पर तान छेडता था। एक दिन उसकी बिना की मधुर तान के स्वर राजा बलराम सिंह के कानों में पड़े। वह उसके सुरो में खो गया। राजा ने माहावत को बुलाया और पूछा कि तुम्हारे घर में सवेरे सवेरे इतनी मनमोहक वीणा कौन बजाता है?

     महावत ने उत्तर दिया-" महाराज, वह एक अनाथ लड़का है।  मैंने उसे घर के कामकाज के लिए थोड़े से पैसे और भोजन पर नौकर रखा है। उसे ही वीणा बजाने का शौक है।"
     राजा ने कहा-" उस लड़के को मेरे पास लेकर आना। महावत वीरसेन को राजा के पास ले गया। राजा ने देखा कि वीरसेन एक सुंदर, गोरवर्ण और आकर्षक व्यक्तित्व वाला युवक है। वह एक राजा का लड़का लगता था। राजा बलराम सिंह ने उसे अपने अंगरक्षक का पद दे दिया। एक दिन राजा बलराम सिंह वन में शिकार खेलने गए। घने जंगल में वह अपने साथियों से बिछड़ गए। एक घोड़े पर राजा था। दूसरे घोड़े पर से वीरसेन था। दोनों थक चुके थे। कुछ देर विश्राम करने के लिए एक वृक्ष की छाया में जा बैठे। राजा थका हुआ था, गर्मी तप रही थी। राजा वीर सिंह की जांग को तकिया बना कर गहरी नींद में सो गया। राजा गहरी नींद में था। वीरसेन के हृदय में बदले की आग धधकने लगी यह वही व्यक्ति है जिसे ने बिना किसी दोष के उसके माता-पिता को फांसी पर लटकाया था। आज मौका है। उनके खून का बदला इसके प्राण ले कर चुका लू। उसने म्यान से तलवार खींची और राजा पर प्रहार करने के लिए जैसे ही तलवार ऊपर उठाई तभी उसे पिता का उपदेश याद आ गया।-" हिंसा कभी प्रतिहिंसा द्वारा समाप्त नहीं होती"। वह वाक्य याद करके उसने अपनी तलवार चुपचाप म्यान में रख ली। थोड़ी देर में ही राजा की आंख खुल गई। बैठते हुए राज ने कहा" मैंने बड़ा भयानक सपना देखा है। मेरी गर्दन काटने के लिए कोई नंगी तलवार हाथ में लिए खड़ा है। वीरेन बोला-" आपका सपना गलत नहीं था। मैं महाराज शूरसेन का पुत्र हूं। आपने मेरे माता-पिता को मौत के घाट उतार दिया था। उसी के प्रतिशोध में अपनी तलवार से मैं आपकी जान लेने जा रहा था।"
     राजा ने आश्चर्यचकित होकर पूछा-"तब तुमने मुझे मारा क्यों नहीं। तुम मुझे आसानी से मार सकते थे।" वीरसेन ने उत्तर दिया -" हां राजन, तुम्हें जान से मारने में मुझे कोई बाधा नहीं थी। आज आपकी जान मेरे पिता जी ने मृत्यु से पूर्व जो चार सीख  मुझे दी थी उन्हीं के कारण बच गई।
    उत्सुकतावश राजा ने वीरसेन से पूछा-" वे चार सीख क्या थी, मुझे भी बताओ पुत्र?"  वीरसेन ने एक-एक करके सभी सीख बता दी।  राजा सिखों को समझ चुका था।

       उन्होने वीर सिंह को गले लगा लिया। राज्य में लौट कर उन्होंनें वीरसेन को राजगढ़ का राजा बनाने की घोषणा कर दी और अपनी पुत्री चंद्रिका का विवाह उसके साथ में बड़ी धूमधाम से करा दिया।
   
      सच है अहिंसा की ढाल हिंसा के तलवार से कहीं अधिक मजबूत है हिंसा तो बर्बादी का रास्ता है।

Sunday, April 19, 2020

Motivational stories असम्भव-से-असम्भव काम भी सम्भव हो जात्ते है।


                       भूरा घोडा                   
 
     एक राजा के दरबार मे एक मन्त्री था। उस का नाम करमचन्द था। करमचन्द बडा ही सूझबुझ वाला, सयाना ओर विवेकशील आदमी था। यही कारण था कि न केवल राजा वरन् उसके घरवाले भी उसका बहुत आदर करते थे।
एक बार राजा के चार राजकुमारो ओर मन्त्री के दोनो लडकों मे ठन गयीं। यहां तक कि हाथापाई की नौबत आ गई और इसी में बड़ा राजकुमार मारा गया। राजा को खबर मिली तो तत्काल मंत्री को बुलवाया।  राजा क्रोध से पागल हो रहा था।
उसने मंत्री और उसके दोनों लड़कों को फांसी की सजा सुना दी। करमचन्द स्वामी भक्त था। उसने बिना कुछ कहे, प्राण दंड की आज्ञा स्वीकार कर ली। यह देखकर राजा का क्रोध उतर गया। उसने कहा- "करमचन्द ! तुम जानते हो की पहाड़ियों के राजा महाराज देवव्रत के पास एक भूरा घोड़ा है। यदि तुम वह भूरा घोड़ा ला दो तो मैं ना केवल फांसी की सजा ही रद्द कर दूंगा, वरन् तुम्हारे लड़कों को भी ऊंचे-ऊंचे पद दूंगा।"
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       करमचन्द जानता था कि भूरे घोड़े को पाना एक असंभव बात है, पर उसे अपने और अपने बेटों के प्राण बचाने का एक अवसर मिला था। उसने राजा का सुझाव मान लिया।
दूसरे दिन सवेरे ही करमचन्द अपने दोनों लड़कों सहित एक नाव में यात्रा पर निकल पड़ा।  कुछ दिनों की यात्रा के बाद उन्हें तट पर एक पहाड़ी दिखाई दी। करमचन्द जानता था कि इस पहाड़ी से ही महाराजा देवव्रत की सीमा शुरू हो जाती है।उसने नाव रोकी और लड़कों सहित तट पर उतर पड़ा। थोड़ी दूरी पर उन्हें एक झोपड़ी दिखाई दी। करमचन्द बेटों के साथ झोपड़ी की ओर चल पड़ा।  झोपड़ी के पास पहुंचकर करमचंद ने तीन बार दरवाजा खटखटाया।  सफेद बालों और दाढ़ी वाले एक आदमी ने दरवाजा खोला। कर्मचंद ने उसे अपना परिचय दिया तो वह बूढ़ा व्यक्ति आदर से झुक गया। वह उन तीनों को झोपड़ी के भीतर ले गया।

       झोपड़ी वाले ने करमचन्द और उसके लड़कों का खूब आदर किया। बातों-बातों में उन्हें पता चला कि इस झोपड़ी वाले का लड़का राजा देवरथ के अस्तबल में काम करता है। करमन्द ने तुरंत एक योजना बनायी। उसने बूढ़े को अपने आने का असली उद्देश्य बताया और कहा कि वह किसी तरह उसे और उसके दोनों लड़कों को अस्तबल में पहुंचा दे। बूढ़े ने पहले तो बहुत आनाकानी की, पर बाद में वह मान गया।

      दूसरे दिन बूढ़ा उन्हें छुपते-छुपाते अस्तबल के भीतर छोड़ आया। करमन्द ने देखा कि अस्तबल के दरबान और रक्षक आराम से सो रहे हैं। उसने जी भरकर भूरे घोड़े को देखा। उसके बाद उसने छिपने का ठौर ढूँढा । संयोग से एक कोने मे उन्हे छिपने की जगह मिल गयी।

       जब वे चारों घोड़े के पास गए तो उन्हें देखते ही घोड़ा जोर से हिनहिनाया। डर के मारे वे चारों छिपने की जगह में जा दुबके।
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       उधर महल में राजा देवव्रत हड़बड़ाकर उठ बैठा। वह सैनिकों को लेकर अस्तबल में जा पहुंचा। वह जान गया कि अस्तबल में जरूर कोई घोड़े को चुराने की कोशिश कर रहा है। उसने भूरे घोड़े के पास जाकर पूछा- "बहादुर! क्या यहां कोई और आदमी है?" घोड़े ने सिर हिलाया तो राजा को लगा कि घोड़े ने हामी भरी है। राजा ने स्वयं सारे  अस्तबल की छानबीन की ।थोड़ी देर में ही करमचन्द ओर उसके दोनों पुत्र पकड़ लिए गए। राजा ने करमचन्द उसका परिचय पूछा। करमचन्द जानता था कि झूठ बोलने से कोई लाभ नहीं होगा। उसने सब बातें सच-सच बतला दी। करमचन्द की कहानी  सुनकर राजा देवराज ने कहा-  "करमचन्द! मुझे तुमसे सहानुभूति है। मैं तुम्हें जीवन-दान देता हूंँ। इन दोनों लड़कों के कारण ही तुम पर इतनी मुसीबत आयी है। मैं इन दोनों को प्राणदण्ड देता हूंँ। पर इनको भी बचाने का उपाय है। अपने हर लड़के को बचाने के लिए तुम्हें उन दिनों की सच्ची कहानी सुनानी पड़ेगी, जब तुम आज से भी बड़े संकट में फंसे होंगे।'
      करमचन्द क्षण भर सोचता रहा। फिर उसने कहना शुरू       किया।
   राक्षस से मुठभेड़
     उस समय मैं लड़का ही था। मुझे शिकार का बहुत शौक  था। नदी के किनारे मेरे पिताजी के कई पहाड़, गुफाएंँ और जंगल थे। एक दिन मैं एक पहाड़ी पर चढ़ रहा था कि अचानक पानी आ गया। पानी से बचने के लिए मैं एक गुफा में चला गया। थोड़ी देर बाद पानी तो बंद हो गया, पर चारों और धुआंँ छा गया। मेरी आंँखों में धुआंँ पड़ा और वे चुँधिया गयी।
मुझे कुछ न दिखा। मैं अपनी आंँखें मल-मलकर अपने चारों ओर देखने लगा। तभी मुझे एक बहुत बड़ा राक्षस कई दर्जन भेड़े हाँकते हुए आता दिखाई दिया। जब वह भेड़े बाँध चुका तो मेरे पास आया और बोला-" कहो करमचन्द! क्या हाल है ?बहुत दिनों से मेरे चाकू में जंग लग रहा था। अब वह तुम्हारी नरम-नरम चमड़ी में जाएगा।"
    उसी समय मुझे एक उपाय सूझा। मैंने कहा-" महोदय !आपकी एक आंँख खराब है। आपको शायद मालूम नहीं कि मैं एक जाना-माना वैध हूंँ। लाइये, पहले मैं आपकी दूसरी आंँख ठीक कर दूंँ।"
       राक्षस मान गया। मेरे कहने पर उसने आग सुलगाई। उस पर पानी रखा। मैं गरम पानी में एक कपड़ा भिगो-भिगोकर उसकी ठीक आंख पर रखता गया। कुछ देर के बाद उसकी दूसरी आंख भी जाती रही। वह अंधा हो गया। अब उसका गुस्सा और बढ़ गया। वह दौड़कर गुफा के द्वार पर खड़ा हो गया और चीखने लगा-"करमचन्द ! में इसका बदला लूंगा।"
        मैंने सारी रात एक दीवार के साथ खड़े होकर काट दी । सुबह हुई। चिड़ियों की चहचहाहट शुरू हुई। उसने गुफा में पहले से मौजूद हिरण को भेड़ों को बाहर ले जाने के लिए कहा। पर मैंने अपने चाकू से पहले ही हिरण का काम तमाम कर दिया।
         एक-एक करके अब भिड़े गुफा के दरवाजे से निकलने लगी। राक्षस हरेक को अपने हाथ से देखने लगा। जब सभी भिड़े गुफा से निकल गयी तो मैं घबराया। इतने में मेरे दिमाग में एक बात आयी। मैंने तुरंत हिरण की खाल उतारी। उस खाल को ओढ़कर चौपाया बन गया और इस तरह उस दैत्य के हाथों से निकल भागा।
        राजा पर करमचन्द की बात का असर हुआ। अब उसने एक और कहानी सुनाने के लिए कहा। इस अनोखी कहानी से ही उसके बड़े लड़के की जान बच सकती थी।
         करमचन्द ने दूसरी कहानी शुरू की :

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मरता क्या ना करता
     एक दिन मैं शिकार की खोज में निकला। घूमते-घूमते नदी के किनारे पहुंँच गया। देखा, नदी में एक बड़ी सुंदर नाम है। उसमें कई तरह के हीरे-जवाहरात रखे हैं, पर सवार कोई नहीं।
    मेरे पैर उसी ओर बढ़ चले। अगले क्षण मैं नाव पर सवार हो गया। नाव पर चढ़ना था कि वह नदी और लहरों के बीच आ गई। कुछ देर के बाद वह एक अन्य ही देश में जा पहुंँची। तट पर उतरकर देखा तो कही कोई आदमी नहीं था। यह सोच-सोच कर मेरा खून जम रहा था कि अचानक मेरी दृष्टि दूर एक सुंदर औरत पर जा पड़ी। वह अपने लड़के के सीने पर तेज धार वाला चमकीला चाकू ताने थी। साथ ही वह रोए भी जा रही थी।
        मैंने सोचा, शायद यह औरत भी मेरी तरह ऐसे ही फंँस गयी है। मैं उसके पास पहुंँचा। पहले तो वह डर गयी। फिर जब उसे विश्वास हो गया कि मैं शत्रु नहीं हूंँ तो उसकी जान में जान आयी। मैंने उसे अपनी सारी कहानी सुनाई। उसने कहा कि उसे भी उस नाव के धन ने मोह लिया था। उसी में बैठकर वह इस अनजान देश में पहुंँची है।
         उसने कहा कि अब यहांँ रहने के सिवाय और कोई चारा नहीं। एक बड़े पत्थर को हटाकर वह मुझे रसोई घर में ले गयी। वहाँँ आग जल रही थी। मैंने उससे पूछा कि वह बच्चे पर चाकू क्यों ताने हुई थी तो उत्तर मिला-"वह राक्षस इस बच्चे को खाना चाहता है।"
        इतने में जमीन हिली और एक राक्षस आ धमका। उसने पूछा-"पानी उबाला?"
        स्त्री ने काँँपती हुई आवाज में कहा-" अभी आग जली       नहीं है।"
        मैं एक तरफ दुबका हुआ था। उस राक्षस ने आग में कुछ और लकड़ियाँ लगायी और बड़े जोर से अट्हास किया। मैंने सोचा, अब मेरी भी आखिरी घड़ी आयी समझो। लेकिन भाग्य ने हमारा साथ दिया आग की गर्मी में वह दैत्य वहांँ लेट गया और खुर्राटे भरने लगा।
        मरता क्या नहीं करता! मैंने तुरंत उस राक्षस की तलवार निकाली और उसे दे मारी।  वह खून से लथपथ हो गया। मैं और वह सुंदर स्त्री बच्चे समेत भाग खड़े हुए।
        करमचन्द चुप हो गया। इतने में राजा के कमरे में एक स्त्री आई। उसकी आयु काफी लगती थी। उसने जब राजा से बात की तो करमचन्द को लगा कि उसने उस स्त्री की आवाज कहीं सुनी हुई है।
        अचानक वह स्त्री करमचन्द की और बड़ी और बोली-" क्या हमें बचाने वाले वह व्यक्ति तुम्हें थे?" करमचंद भी अब तक उसे पहचान चुका था। उसने कहा-" जी हां, वह व्यक्ति मैं ही था।"
        उस स्त्री ने खुश होकर कहा-"और वह स्त्री भी मैं ही थी और जिस लड़के को तुमने बचाया था, वह अब यही राजा है ।सचमुच, तुम्हारा उपकार तो हम जिंदगी भर नहीं भूल सकते ।" अब क्या था! चारों तरफ खुशी की लहर दौड़ गयी।
      राजा देवव्रत के यहांँ कुछ दिन रहने के बाद करमचन्द अपने दोनों लड़कों, भूरे घोड़े और अथाह धन के साथ घर लौटा राजा ने भूरा घोड़ा देखकर करमचन्द को गले लगा लिया। उसने कहा-" करमचंद! तुमने यह सिद्ध कर दिया है कि जब मनुष्य किसी बात के लिए मन में ठान लेता है तो असम्भव-से-असम्भव काम भी सम्भव हो जाते हैं।"
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                          आत्म   विश्वास एक गांव में दो लडके राहा करते थे। दोनो बहुत अच्छे दोस्त थे। एक का नाम राम और एक का नाम श्याम था।राम...